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दोस्तों हर चकाचौंध दृश्य के पीछे एक कला सच छिपा होता है।

  • Writer: misal writez
    misal writez
  • Apr 18, 2024
  • 2 min read


दोस्तों हर चकाचौंध दृश्य के पीछे एक कला सच छिपा होता है।

आज मैं विश्व के सबसे ऊंचा मूर्ति "स्टैच्यू ऑफ यूनिटी" है पास में ही "सरदार सरोवर बांध" देखने आया हुआ हूं काफ़ी बढ़िया बनाया गया है। अंदर एकदम लक्जरी व्यव्स्था, ख़ूब सजावट पर्यटन को आकर्षित करता है। बड़े - बड़े फूड - कोर्ट खुले हुए हैं, आइसक्रीम पार्लर साथ-साथ फुल-एसी वाली इलेक्ट्रिक बसें चलती है। आज के सरकार के साथ मिलकर यहां के कॉरपोरेट भी ख़ूब कमा रहें हैं। हम जैसे रोज़ हजारों पर्यटक आ रहे हैं लेकिन किसी को पता नहीं है कि यहां इस चका चौंध से पहले कुछ लोग रहते थे यहां उनका खेती - बड़ी था नर्मदा नदी के तट पर उनका सम्पूर्ण जीवन था, जो अब नही है या फिर जैसे तैसे आंशिक रूप में बचा हुआ है। हां मैं उन आदिवासियों - वनवासियों की बात कर रहा हूं जिन्हें बिना कोई न्यायोचित प्रक्रिया और ना कोई मुवावजा के रकम- नौकरी दिए बगैर ही एक झटके में बेदखल कर दिया गया, मानो वो लोग इस देश पर कोई हक़ नही है। वो आज भी अपने हाल पर बेहाल स्थिति में जीने पर मजबूर हैं।

उन्ही में से एक झोपड़ी लगाकर गन्ने का रस निकलकर बेच रहें दंपति के पास गन्ना का रस पिया। साड़ी में बच्चा को बांधकर लटकाए हुए देखा, तो मुझे शक हुआ कि ये जरूर यहीं के आदिवासी होंगे। मैंने पूछा की कहां घर है? महिला ने कहा कि साहब निवासी इसी जमीन का हूं परंतु घर है ही कहां? जिसे देखने अपलोग आएं हैं यहां ही मेरा घर और पास में ही मेरा खेती था अब कुछ नही बचा है यह कहते हुए उदास मन से डबडबा आईं। मैंने कहा कि विस्थापन में सरकार कुछ मुववजा और घर का बंदोबस्त किया होगा न। उन्होंने इशारों में अपनी झोपड़ी के तरफ़ इशारा करते हुए कहा यही घर है।




वो जो झोपड़ी था थोड़ा ऊंचाई पर पहाड़ी के एक टीले जैसे जमीन पर लगी हुई थी, उन झोपड़ियों के तरफ़ सिर पर पानी का तसला - बर्तन लिए हुए दो महिला दिखी मानो कुछ दूर से पानी लेकर आ रही थीं। ये हकीकत इसलिए बयान करना पड़ा क्योंकि हम आज के युवा पीढ़ी बाजार द्वारा रचित एक अलग यूटोपियन ख्यालों में डूबे हुए भेड़ चाल चलने में मसरूफ़ हैं। जो कहीं न कहीं हमे इंसानियत, इंसाफ़ और प्रेम से कोसों दूर ले जा रहा है।

यह स्थिति कमोबेश हर आदिवासी इलाकों का है जहां लोकतंत्र पहुंचता ही नही है। इन इलाकों में आम लोगों का जीवन संघर्ष मुख्य - राजनीति का हिस्सा ही नहीं बन पाता है। क्योंकि यहां बहुसंख्यक वोट बैंक नही होता ना ही साम्प्रदायिकता का अचार होता है।

इन परिस्थितियों को देख कलमबंद करते हुए ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता की कुछ पंक्तियां जेहन आ रही है: “चुप्पी साध लेती है दिल्ली

ख़ामोश हो जाते हैं गलियारे

संसद के गलियारे

राष्ट्रपति भवन की दीवारें

और धार्मिक पण्डे।


इन्ही की दूसरी कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है:

”मैं जानता हूँ

मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा

और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा


इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच

एक फ़ासला है

जिसे लम्बाई में नहीं

समय से नापा जाएगा।


~ मिसाल


दिनांक: 18/04/2024

 
 
 

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